रसीदी टिकट कोरे काग़ज़ पर उकेरी हुई अमृता प्रीतम की इश्क़ की दास्तान है. और रसीदी टिकट का छपना वो इसे दुनिया को अपना ज़ख्म दिखाना मानती हैं. रसीदी टिकट में साहिर लुधयानवी, इमरोज़, सज्जाद हैदर के साथ-साथ अली सरदार जाफरी, प्रकाश पंडित, राजेंद्र सिंह बेदी, भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, वियतनाम के प्रेसीडेंट हो ची मिन्ह सहित अनेक विदेशी कवियों व महान हस्तियों का उल्लेख दर्ज मिलता है. उन्होंने अपनी आत्मकथा का नाम रसीदी टिकट क्यों रखा इसके पीछे भी एक कहानी है. अमृता प्रितम और साहिर लुधियानवी के प्रेम-कहानी की चर्चा सुनकर मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने अमृता प्रीतम से सवाल किया. कहा- अपनी और साहिर की प्रेम कहानी उन्हें बताएं. दोनों की कहानी सुनने के बाद खुशवंत सिंह काफी निराश हुए. इसका जिक्र उन्होंने अपने एक लेख में किया और लिखा- दोनों की कहानी को तो एक रसीदी टिकट भर जगह में लिखी जा सकती है. इसी बात से प्रभावित होकर अमृता प्रीतम ने अपनी आत्मकथा का नाम रसीदी टिकट रखा.
एक इबारत वह होती है, जो बाहर की घटनाएं ज़िन्दगी के कागज़ पर लिखती है, लेकिन एक इबारत वह होती है, जो इंसान का अन्तरमन, आत्मा के कागज़ पर लिखता है - यह बात अमृता प्रीतम की ज़िंदगी को बयां करने के लिए और क़रीब ले जाती है. वे बाहरी ज़िन्दगी की हर घटनाएं सूखे कोरे काग़ज़ पर बख़ूबी बयां करती रही लेकिन अपनी अन्तरमन की घटनाओं को बहुत ही थोड़े में निपटा दिया. जीवन की देखी, सुनी या बीती घटनाएं कब और किस प्रकार लेखक की रचना का अंश बन जाती है, कभी चेतन तौर पर और कभी बिलकुल अचेतन तौर पर, यह किसी के हिसाब की पकड़ में नहीं आता. अमृता ने भी अपनी ही ज़िंदगी के अनुभवों को क़ोरे काग़ज़ पर उकेड़कर अपनी ही कहानियों के किरादारों में ताउम्र जीती रहीं.
साहिर लुधियानवी या अमृता प्रीतम से मोहब्बत करने वालों की मोहब्बत तब तक अधूरी है जब तक वे एक-दूसरे के बारे में पढ़कर जानकारी हासिल नहीं कर लेते. वो अफ़साना जो साहिर के हर जानने वाले मानते हैं, उनपे अमृता अपनी किताब रसीदी टिकट के ज़रिए उनपर मुहर लगाती हैं. क्या अफ़साना है और क्या हक़ीक़त, अमृता प्रीतम अपने बायोग्राफी रसीदी टिकट में इसकी ख़ुद गवाही देती हैं.
साहिर को पढ़ने के दौरान ऐसे कई वाकये सुनने, पढ़ने को मिला जिसमें अमृता का ज़िक्र आ जाता. गुमनाम मोहब्बत और ख़ामोशी से मरासिम निभाने वाले दोनों अपनी अलग-अलग दुनिया में नई-नई रचनाएं और नायाब कृतिमान स्थापित करते रहे. उन्होनें कोरे काग़ज़ की दास्तान में लिखा है – मेरी और साहिर की दोस्ती में कभी भी अल्फ़ाज़ हाइल नहीं हुए. ये दो ख़ामोशियों का एक हसीं रिश्ता था.
अमृता, जो साहित्य अकादमी पुरस्कार जीतने वाली प्रथम महिला लेखिका भी हैं, ग्यारह या बारह वर्ष की थी तभी से लिखना शुरू कर दिया था. काफ़िया और रदीफ़ का हिसाब-किताब उन्होंने अपने पिता से सीखा था. तब से जो उन्होंने लिखना शुरू किया, उनकी कलम उनकी मौत तक साथ चलती रही. इसका प्रमाण यह है कि उनकी 100 से ज़्यादा किताबें शाया हुई है. उनकी पहली किताब 1936 में छपी. एक नहीं, दो नहीं, कई भाषायों में उनकी किताबें प्रकाशित की जा चुकी हैं. उनका जन्म भले ही पंजाब के गुजरांवाला में हुआ हो लेकिन भारत की इस बेटी ने संसार भर में अपना परचम लहराया. पच्छिम से लेकर पूरब तक हर देश में बुलाई गयीं, वो भी अकेली. डेलीगेशन के साथी लेखकों के साथ एक महिला लेखिका को साथ लेकर नहीं जाने का विचार-आग्रह को जानकर एक बार उन्होंने सज़्ज़ाद ज़हीर (उर्दू के एक प्रसिद्ध लेखक और मार्क्सवादी चिंतक) से कहा था - आपने यह कैसे सोच लिया कि मैं किसी डेलीगेशन के (आप लोगों के) साथ जाना चाहूंगी. मैंने अपने मन में सोच लिया है कि मैं जब भी किसी देश जाऊंगी, अकेले जाऊंगी. सोवियत रूस को अगर मेरी ज़रूरत होगी, तो मुझ अकेली को बुलावा भेजेंगे, नहीं तो नहीं सही.
साल 1936 में, जब अमृता 16 बरस की थीं, प्रितम सिंह से उनका बचपन में विवाह हो गया. और इस तरह प्रितम का उपनाम उन्हें प्राप्त हुआ. यही वो साल था जब अमृता की मां का देहांत हुआ था और इसी वर्ष उनकी पहली किताब “अमृत लहरां” शाया हुई थी. हलांकि यह शादी खुशहाल नहीं हो सकी और अंतत: 1960 में इस रिश्ते का अंत हो गया. साल 1960 को अमृता अपनी जिंदगी का सबसे उदास बरस मानती हैं, जिंदगी के कैलेंडर में फटे हुए पृष्ठ की तरह. यही वो दौर था जब लेखिका ने अपनी जिंदगी की सबसे उदास कविताएं लिखीं. अमृता लिखती हैं- मन ने घर की दहलीज़ों के बाहर पांव रख लिया था, पर सामने कोई रास्ता नहीं था. साहिर को बम्बई फ़ोन करने के लिए फ़ोन के पास गई थी कि अजीब संजोग हुआ था. उस दिन के ‘ब्लिट्ज’ (एक भारतीय समाचार-पत्र था जिसके सम्पादक रूसी करंजिया थे) में तस्वीर भी थी और ख़बर भी कि साहिर को ज़िन्दगी की एक नई मोहब्बत मिल गई है. हाथ फ़ोन के डायल से कुछ इंच दूर शून्य में खड़े रह गए..समुद्र में तूफ़ान उठता है तो लहरें उसकी ख़बर देती हैं, लेकिन कई बार मन में उठते हुए तूफ़ान की बाहर से किसी को ख़बर नहीं मिलती. अमृता का दर्द इन पंक्तियों में स्पष्ट झलकता है.
अमृता का साहिर से जो रिश्ता था उसे कोई नाम तो नहीं दिया जा सकता है, लेकिन उस रिश्ते को महसूस ज़रुर किया जा सकता है. वाकयों के ज़रिए सुनिए अमृता की जुबानी जो उनकी किताब "रसीदी टिकट" में दर्ज है:
"दिल्ली में पहली एशियन राईटर्स कान्फ्रेंस हुई थी, शायरों-अदीबों को उनके नाम के बैज मिले थे, जो सबने अपने कोटों पर लगाए थे, औऱ साहिर ने अपने कोट पर से अपने नाम का बैज उतारकर मेरे कोट पर लगा दिया था, और मेरे कोट पर से मेरे नाम का बैज उतार कर अपने कोट पर लगा लिया था. उस समय किसी की नज़र पड़ी, उसने कहा था कि हमने बैज ग़लत लगा रखे हैं, तो साहिर हंस पड़ा था कि बैज देने वाले से ग़लती हो गई होगी, पर इस ‘ग़लती’ को हमें न दुरुस्त करना था, न किया.."
"याद है, एक मुशायरे में लोग साहिर से ओटोग्राफ़ ले रहे थे. लोग चले गए, मैं अकेली उसके पास रह गई, तो मैंने हंसकर अपनी हथेली उसके आगे कर दी थी, कोरे काग़ज़ की तरह. और उसने मेरी हथेली पर अपना नाम लिखकर कहा था – यह कोरे चैक पर मेरे दस्तख़त हैं, जो रकम चाहे भर लेना और जब चाहे कैश करवा लेना."
"मेरी और साहिर की दोस्ती में कभी भी अल्फ़ाज़ हाइल नहीं हुए. ये दो ख़ामोशियों का एक हसीं रिश्ता था. मैंने जो नज़्म उसके लिए लिखीं, उस मजमूए को जब अकादमी अवार्ड मिला, तो प्रेस रिपोर्टर ने मेरी तस्वीर लेते हुए चाहा कि मैं काग़ज़ पर कुछ लिख रही होऊं. तस्वीर लेकर जब प्रेस वाले चले गए तो देखा कि उस पर मैंने बार-बार एक ही लफ़्ज़ लिखा था- साहिर..साहिर..साहिर. इस दीवानगी के आलम के बाद घबराहट हुई कि सवेरे जब अख़बार में तस्वीर छपेगी, तस्वीर वाले काग़ज़ पर यह नाम पढ़ा जाएगा, तो कैसी क़यामत आएगी?..पर क़यामत नहीं आई. तस्वीर छपी, पर वह काग़ज़ कोरा दिखाई दे रहा था."
"आज से चालीस बरस पहले (यानि कि Oct 26, 1980 से चालीस बरस पहले) जब लाहौर में साहिर मुझसे मिलने आता था, आकर चुपचाप सिगरेट पीता रहता था. राखदानी जब सिगरेटों के टुकड़ों से भर जाती थी, वह चला जाता था, और उसके जाने के बाद मैं अकेली सिगरेट के उन टुकड़ों को जलाकर पीती थी. मेरा उसके सिगरेट का धुंआ सिर्फ़ हवा में मिलता था, सांस भी हवा में मिलते रहे, और नज़्मों के लफ़्ज़ भी हवा में.."
"इस तरह हफ्ते गुज़र जाते, महीने गुज़र जाते, कोई समागम होता, तो साहिर की आवाज़ सुन सकती थी, और जब कभी वो आ जाता, मेरा काली रातें भी सपनों के पैरों तले चांदनी बिछा देतीं."
"अख़बारों और किताबों में अनेक ऐसी घटनाएं पढ़ी हुई थीं- कि होने वाले मां के कमरे में जिस तरह की तस्वीरें हों या जैसे रुप की वह कल्पना करती हो, बच्चे की सूरत वैसे ही हो जाती है..और मेरी कलपना ने जैसे दुनिया से छिपकर धीरे से मेरे कान में कहा- ‘अगर मैं साहिर के चेहरे का हर समय ध्यान करुं, तो मेरे बच्चे की सूरत उससे मिल जाएगी. दीवानगी के इस आलम में जब बच्चे का जन्म हुआ, पहली बार उसका मुंह देखा, अपने ईश्वर होने का यक़ीन हो गया, और बच्चे के पनपते हुए मुंह के साथ यह कल्पना भी पनपती रही कि उसकी सूरत सचमुच साहिर से मिलती है..एक बार यह बात मैंने साहिर को भी सुनाई, अपने आप पर हंसते हुए. उसकी और किसी प्रतिक्रिया का पता नहीं, केवल इतना पता है कि वह सुनकर हंसने लगा और उसने सिर्फ इतना कहा- “ वैरी पूअर टेस्ट!” साहिर को ज़िंदगी का एक सबसे बड़ा कॉम्पलेक्स है कि वह सुन्दर नहीं है, इसी कारण उसने मेरे पूअर टेस्ट की बात की थी."
अपने उद्गम से निकलने के बाद गंगा पहाड़ों और चट्टानें को पार कर मैदानी इलाके में सरस्वती से मिलती है लेकिन कुछ दूर चलते ही सरस्वती विलीन हो जाती है और फिर अंतत: स्वयं गंगा सबों का बोझ उठाये ख़ुद को समुद्र को सौंप देती है. इस रिश्ते में यहाँ गंगा अमृता प्रीतम हैं और सरस्वती साहिर लुधयानवी.
अमृता का मानना था कि ज़हन में बसे हुए साए घर की छत नहीं बनते. लेकिन अमृता ने अपने इसी साए से सौ मंज़िला इमारत खड़ी कर दी. कितने ही उपन्यास उन्होंने अपने सपने में दिखी घटनाओं पर वर्णित किया है, अपने आस-पास के लोगों पर, अपनी दोस्तों की ज़िन्दगी पर और कभी ख़ुद की ज़िन्दगी के अनुभवों पर. लेकिन इन कहानियों को इस तरह से गढ़ा गोया कोई अलग ही अवतार हो. दुखों को, ग़मों को शब्दों में ढालकर कितने ही पात्रों को वे आजीवन सजीव कर गयीं.
उन्होंने न जाने कितने विषयों पर लिखा, लेकिन उनकी लेखनी में सूरज का एक अलग रंग चमकता है. शायद सूरज से उनका जन्म-जन्मांतर का नाता रहा हो. या शायद अपने अंदर की स्याह रातों को वे सूरज की रौशनी से दूर करने की तलाश में बेचैन रही होंगी, नहीं पता. लेकिन हर हालात में वे सूरज को फिट कर अपने नज़्मों में प्रयोग करती रहीं. प्रस्तूत है उनके नज़्मों का कुछ प्रमुख अंश जिसमें सूरज का नायाब जिक्र मिलता है:
बरसों तक सूरज जलाए, बरसों तक चांद जलाए
आकाशों से जाकर चांदी-रंग के तारे मांग लाए
किसी ने आकर दीया न जलाया
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हमारी आग हमें मुबारक, सूरज हमारे द्वारे आया
और उसने एक कोयला मांगकर अपनी आग सुलगाई
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सूरज का पेड़ खड़ा था, किरणों को किसी ने तोड़ लिया
और चांद का गोटा अंबर से उधेड़ लिया
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नज़र के आसमान से है चल दिया सूरज कहीं
पर चांद में अभी भी उसकी खुश्बू है आ रही
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धरती ने आज पुछवाया है
भविष्य की लोरी कौन लिखेगा
कहते हैं, एक आशा किरणों की कोख में आई है
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पूरब ने एक पालना बिछाया, ज़िद्दी पुश्तैनी एक पालना
सुना है, सूरज रात की कोख में है
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मुझे वह समय याद है
जब एक टुकड़ा धूप का, सूरज की उंगली पकड़कर
अंधेरे का मेला देखता, भीड़ों में खो गया
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मेरा सूरज बादलों के महल में सोया हुआ है
वहां कोई खिड़की नहीं, दरवाजा नहीं, सीढ़ी भी नहीं
और सदियों के हाथों ने जो पगडण्डी बनाई है
वह मेरे पैरों के लिए बहुत संकरी है
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वो तमाम उम्र दुनिया के ग़लत मूल्यों के ख़िलाफ़ अपने कलम से लड़ती रहीं. देश और दुनिया में इंसानियत की जड़े मजबूत करती रहीं और अन्याय के खिलाफ आवाजें उठाती रहीं. उनके अनुसार स्वतंत्रा का अर्थ वह व्यवस्था है जो आम साधारण व्यक्तियों को भी जीवन का अर्थ दे, पर जिसमें किसी का व्यक्तित्व न खो जाए. देश में जाति और मज़हब के नाम पर वर्षों से लिपटे हुए अमरबेल को परत दर परत हटाने का भरसक प्रयास करती रहीं. कभी राज्यसभा के पटल से तो कभी अपने कहानियों-उपन्यासों के माध्यम से. असमानता, इंसाफ और इंसानियत के लिए वो शायद इसलिए भी लड़ती रहीं क्योंकि उन्हें यह मालूम था कि इंसान और इन्साफ के दरम्यान एक लंबा फासला होता है, जिसे तय करते हुए लोगों की ज़िन्दगी के न जाने कितने साल और उनकी कितनी कमाई बर्बाद हो जाती है. मौलिक कर्तव्यों की इस ज़िम्मेदारी को पूरा करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. उनका यह वाक्य कितना सच मालूम पड़ता है कि जो लोग रेत को पानी समझने की ग़लती नहीं करते, उनकी प्यास में ज़रूर कोई कसर होगी. कम से कम उनकी कृतियों से हमें यह तो साफ हो ही जाता है कि उनकी प्यास कितनी सच्ची थी.
जिस तरह से अमृता के बगैर साहिर अधूरे हैं उसी तरह इमरोज़ के बगैर अमृता अधूरी हैं. वही इमरोज़ जिनका वास्तविक नाम इंद्रजीत चित्रकार था. फारसी के इस लफ्ज़ का मायने इंद्रजीत को बहुत पसंद आया था, जिसका मतलब “आज” होता है. अपनी आत्मकथा “रसीदी टिकट” में अमृता प्रितम इमरोज़ का कुछ इस तरह से ज़िक्र करती हैं - "मेरे अकेलेपन का शाप इमरोज़ ने तोड़ा है. इमरोज़ एक दूधिया बादल है, चलने के लिए वह सारा आसमान भी ख़ुद है, और वह पवन भी ख़ुद है, जो उस बादल को दिशा-मुक्त करती है. इमरोज़ को यह फ़िक्र नहीं कि यह दिशा किसी मौलवी की मस्जिद की ओर जाती है, या पार्लियामेंट की सीढ़ियों की ओर या अदालत के रास्ते की ओर, या पेरिस की गलियों की ओर. इसका वजूद एक दूधिया बादल है, जो अपने शक्ति कणों से सघन होकर सारे आसमान में विचरता है." इमरोज़ की दोस्ती का ही ये नतीज़ा था कि अमृता यह कहने के लिए विवश हो गई कि “कविता केवल इश्क़ के तूफ़ान में से ही नहीं निकलती, यह दोस्ती के शांत पानियों में से भी तैरती हुई आ सकती है.”
यूगोस्लाविया में एक कहावत है- पोएट्री इज़ ए कंट्री विदाउट फ्रंटियर्स. मगर कुछ लेखकों और लेखिकाओं की रचनाओं को देखकर यह महसूस होता है कि इनकी भी कोई सीमा नहीं होती है. संसार के हर हिस्से में उनके चाहने वाले मौजूद होते हैं. अमृता उनमें से एक हैं.
उनका मानना था : लेखक दो तरह के होते हैं-एक जो लेखक होते हैं, और दूसरे, जो लेखक दिखना चाहते हैं. वे रसीदी टिकट में लिखती हैं - "अगर किसी व्यक्ति विशेष पर कहानी या उपन्यास लिखूं, तो उस पात्र की तसल्ली मेरे लिए कहानी छपने से अधिक ज़रुरी होती है. मेरा विश्वास है कि रचना मानव जीवन के अध्ययन के लिए है, न कि कुछ लोगों का दिल दुखाने के लिए, या उनके बारे में चौंकाने वाली अफ़वाहें फैलाने के लिए. वे लिखती हैं – सच में, मेरे पात्र उनका मेरे लिए प्यार, मेरी असली अमीरी है. मैं नहीं जानती कि जो लेखक अपने पात्रों के दिलों को दुखाकर कहानियां गढ़ते हैं, उन्हें ज़िंदगी में क्या हासिल होता है."
तो ऐसी थीं हमारी अमृता. उनकी रचनाओं और विचारों से इतना तो मालूम हो ही जाता है कि कमसेकम उन्होंने आसमान को बेचकर चाँद नहीं कमाया. उन्होंने एक बार कहा था- कोई भी आक्रमणकारी जब धरती के किसी भाग पर पांव रखता है, तो सबसे पहले वहां की पुस्तकों की आलमारियां कांपती हैं, पर जब कोई कवि किसी दूर धरती के भाग पर पांव रखता है, तो सबसे पहले पुस्तकों की आलमारियां औऱ बड़ी हो जाती है. अमृता प्रितम ज़िंदगी भर अपनी यादों की आलमारियों से किताबों की आलमारियां भरती रहीं.
पेश है अमृता प्रीतम की एक लोकप्रिय कविता :
अम्बर की एक पाक सुराही, बादल का जाम उठाकर
घूंट चांदनी पी है हमने, बात कुफ़्र की की है हमने
कैसे इसका कर्ज़ चुकाएं, मांग के अपनी मौत के हाथों
यह जो जिंदगी ली है हमने, बात कुफ़्र की की है हमने
अपना इसमें कुछ भी नहीं है, रोज़े-अज़ल से उसकी अमानत
उसको वही तो दी है हमने, बात कुफ़्र की की है हमने…
31 अगस्त, 1919 में गुजराँवाला में पैदा हुईं हिंदी और पंजाबी की जानीमानी साहित्यकार अमृता प्रीतम का 31 अक्तूबर, 2005 को दिल्ली में लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया. (अमृता प्रीतम जनवरी 2002 में अपने ही घर में गिर पड़ी थीं और तब से बिस्तर से नहीं उठ पाईं.) उपन्यास, कहानियों और कविताओं के ज़रिए पंजाब के जीवन के रंगों को दुनिया के सामने भावात्मक तरीक़े से प्रस्तुत करने वाली अमृता प्रीतम को वर्ष 1982 में साहित्य का शीर्ष सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया था. उन्होंने कुल मिलाकर लगभग 100 पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा रसीदी टिकट भी शामिल है. अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ. उन्हें पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है. अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण भी प्राप्त हुआ. उन्हें 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से अलंकृत किया जा चुका है. प्रीतम को उनकी मार्मिक कविता, अज्ज आखां वारिस शाह नू (आज मैं वारिस शाह का आह्वान करती हूं - "ओड टू वारिस शाह") के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है, जो 18वीं सदी के पंजाबी कवि के लिए एक शोकगीत है, जो विभाजन के दौरान हुए नरसंहारों पर उनकी पीड़ा की अभिव्यक्ति है. अमृता प्रीतम ने अनेक विधाओं में लिखा. उन्होंने रसीदी टिकट जैसी आत्मकथा लिखी, तो पिंजर जैसा उपन्यास, उनकी अज आँखा वारिस शाह जैसी कविता अमर है.
इतिहास अगर चुप भी हो जाए, तो उनकी रचनाएं क़यामत के अंतिम रात तक दहाड़े मारती रहेगी. उनकी ही एक लाइन से मैं इस यात्रा का अंत करना चाहुंगा: परछाईयां पकड़ने वालों, छाती में जलने वाली आग की परछाई नहीं होती.
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